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धम्म सिंधु - कच्छ विपश्यना केंद्र

सयाजी उ बा खिन की परंपरा में आचार्य गोयन्काजी द्वारा सिखायी गयी विपश्यना साधना

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श्री सत्य नारायण गोयन्का


पृष्ठभूमि

S.N. Goenkaश्री सत्यनारायण गोएंका अपने समयके सर्वोत्तम विपश्यना (Vipassana) साधना के गृहस्थ आचार्य हैं।

यद्यपि भारतिय वंशक्रम के है श्री गोयन्काजी का जन्म और बडप्पन म्यंमा (बर्मा) में हुआ। वहां रहते हुए सौभाग्य से वे सयाजी उ बा खिन के संपर्क में आये एवं उनसे विपश्यना का प्रशिक्षण प्राप्त किया। चौदह वर्षों तक अपने गुरूदेव से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद श्री गोयन्काजी भारत आये और उन्होंने १९६९ में विपश्यना सिखाना शुरू किया। जातीयता एवं सांप्रदायिकता से प्रभावित भारत में श्री गोयन्काजी के शिविरों में समाज के हर तरह के हजारो लोग सम्मिलित हुए है। इसके अलावा, आज विश्व भर के अनेक देशों के लोग विपश्यना शिविरों में भाग लेकर लाभान्वित होते हैं।

करीबन ४५ सालके अंतराल में  श्री गोयंकाजी  और उनके साहाय्यक आचार्योंने  भारत एवं पूर्व तथा पश्चिमी देशोंमें हजारों लाखोंकी संख्यामें जनोंको कई शिवीरोंद्वारा सिखाया है. आज, उनके मार्गदर्शनमें स्थापित हुए ध्यान केंद्र आशिया, युरोप, अमेरिका, अफ्रिका तथा ऑस्ट्रेलिया में कार्यरत है. 

आज आचार्य गोयन्काजी जो विपश्यना सिखाते हैं, उसको लगभग २५०० वर्ष पूर्व भारत में भगवान बुद्ध ने पुन: खोज निकाला था। भगवान बुद्ध ने कभी भी सांप्रदायिक शिक्षा नहीं दी। उन्होंने धर्म (धम्म (Dhamma)) सिखाया -मुक्तिका मार्ग- जो कि सार्वजनीन है। श्री गोएंकाजीका उपगम्य(प्रवेश) सर्वथा गैर-सांप्रदायिकता है। यही कारण है कि यह विद्या विश्व भर सभी पृष्ठभूमियों के लोगों को आकर्षित करती है, चाहे वे किसी भी संप्रदाय के हो या किसी भी संप्रदाय में न विश्वास करने वाले हो।

श्री. गोयन्काजीको अपने जीवनकालमे बहोतसे पुरस्कार मिले, जिसमे भारतके राष्ट्रपतीद्वारा २०१२ सालमे प्रतिष्ठाका पद्म पुरस्कार भी शामिल है. Padma Awardsभारतके सरकारद्वारा दिया गया यह उच्च नागरी पुरस्कार है.

सत्यनारायण गोयंकाजीने सप्टेंबर २०१३ मे अपनी अंतीम सास लीया, उस समय उनकी आयु ८९ साल थी. एक अविनाशी विरासत उन्होंने छोड दिया हैः विपश्यनाकी तकनीक,जो अभी दुनियाभरके लोगोंके लिये अधिक व्यापक रुपसे उपलब्ध है.


युनो में शांति शिखर वार्ता

S. N. Goenka at U.N.
छायाचित्र Beliefnet, Inc. से साभार

आचार्य गोयन्काजी को संयुक्त राष्ट्र संघ, न्युयॉर्क के जनरल एसेंब्ली हॉल में आयोजित सहस्राब्दि विश्व शांति संमेलन में विश्व के गण्यमान्य आध्यात्मिक एवं धार्मिक नेताओं के साथ आमंत्रित किया गया था। २९ अगस्त २००० को संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव कोफी अन्नान ने इस संमेलन का उद्घाटन किया।

श्री सत्य नारायण गोयन्काजी द्वारा शांति संमेलन को संबोधित किया 

बिल हिगिन्स अगस्त २९, २०००

न्युयॉर्क — आचार्य गोयन्काजी ने सहस्राब्दि विश्व शांति संमेलन के प्रतिनिधियों को राष्ट्र संघ के जनरल एसेंब्ली हॉल में, जहां कि पहली बार आध्यात्मिक एवं धार्मिक नेताओं का संमेलन हो रहा था, संबोधित किया।

आचार्य गोयन्काजी ने कॉन्फ्लिंक्ट ट्रांसफॉर्मेशन नामक सत्र में भाषण दिया। इस सत्र में धार्मिक समन्वय, सहिष्णुता एवं शांतिपूर्व सह-अस्तित्व इन विषयों पर चर्चा हो रही थी।

“बजाय इसके कि हम एक संप्रदाय से दूसरे संप्रदाय में रूपांतरण की बात सोचे”, गोयन्काजी ने कहा, “अच्छा होगा कि हम लोगों को दुःख से सुख की ओर, बंधन से मुक्ति की ओर, क्रूरता से करुणा की ओर ले चलें।”

गोयन्काजी ने संमेलन के दोपहर के सत्र में लगभग दो हजार प्रतिनिधि एवं प्रेक्षकों के सामने यह भाषण दिया। यह सत्र सी.एन.एन. के संस्थापक टेड टर्नर के भाषण के बाद हुआ।

शिखर संमेलन का विषय विश्व शांति है, इस को ध्यान में रखते हुए गोयन्काजी ने इस बात पर जोर डाला कि विश्व में शांति तब तक स्थापित नहीं हो सकती जबतक व्यक्तियों के भीतर शांति न हो। "विश्व में शांति तब तक स्थापित नहीं हो सकती जबतक व्यक्तियों के मन में क्रोध एवं घृणा है। मैत्री एवं करुणा भरे हृदय से ही विश्व में शांति स्थापित की जा सकती है।"

शिखर संमेलन का एक महत्वपूर्ण पहलू विश्व में सांप्रदायिक लड़ाई-झगड़ा एवं तनाव को कम करना है। इस के संबंध में गोयन्काजी ने कहा कि जब तक अंदर में क्रोध एवं द्वेष है, तब तक चाहे वह इसाई हो, हिंदू हो, मुसलमान हो या बौद्ध हो, दुःखी ही होगा।

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच उन्होंने कहा, “जिसके शुद्ध हृदय में प्रेम एवं करुणा है, वहीं भीतर स्वर्गीय सुख का अनुभव कर सकता है। यही निसर्ग का नियम है, चाहे तो कोई यह कह ले कि यहीं ईश्वर की इच्छा है।”

विश्व के प्रमुख धार्मिक नेताओं की इस सभा में उन्होंने कहा, “हम सभी संप्रदायों के समान तत्वों पर ध्यान दें, उन्हें महत्व दें। मन की शुद्धता को महत्व दें जो कि सभी संप्रदायों का सार है। हम धर्म के इस अंग को महत्व दे एवं उपरी छिलकों को—सांप्रदायिक कर्मकांड, पर्व-उत्सव, मान्यताएं—नजरअंदाज करें।”

अपने प्रवचन का सार बताते हुए गोयन्काजी ने सम्राट अशोक के एक शिलालेख को पढ़ा जिसमें उसने कहा है, “केवल अपने धर्म का सम्मान एवं दूसरे धर्मों का असम्मान नहीं करना चाहिए, बल्कि बहुत से कारणों से दूसरे धर्मों का सम्मान करना चाहिए। ऐसा करने से वह अपने धर्म की वृद्धि में सहायता तो करता ही है लेकिन दूसरे धर्मों की भी सेवा करता है। ऐसा न करे तो वह अपने धर्म की भी कब्र खोदता है और दूसर धर्मों को भी हानि पहुँचाता है। आपस में मिलकर रहना अच्छा है। दूसरों के धर्मों का जो उपदेश है उसे सभी सुनें एवं सुनने के लिए उत्सुक भी हों।”

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव कोफी अन्नान ने आशा जताई कि इस शिखर परिषद में एकत्र हुए विश्व के प्रमुख आध्यात्मिक एवं धार्मिक नेताओं की शांति की एकत्रित पुकार नये सहस्राब्दि में शांति बढ़ायेगी।

इस प्रकारकी पहलेबार हुए संयुक्त राष्ट्रसंघके शिखर परिषदकेलिये जिन अध्यात्मिक नेताओंको आमंत्रित किया था इनमे स्वामिनारायण प्रेरणाके प्रमुख स्वामी, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी अग्निवेश, माता अमृतानंदमयी देवी और दादा वासवानीके सिवा प्रमुख विद्वान डॉ करण सिंग और एल. एम. सिंघवी मौजूद थे

धार्मिक और सांस्कृतिक विविधताके लोगोंका उलेख करते हुए अन्नानने कहा, "संयुक्त राष्ट्रसंघ एक बेलबूटेदार कपडा है सिर्फ साडी और सूटका नही तो पादरींओका गलपट्टी, भिक्षुणीओंका वस्त्र और लामाओंका गणवेश; बिशपका शिरोवस्त्र,यारमूल्क इत्यादि."

तिबेटन नेताओंके अनुपस्थितीके बारेमे बारबार प्रश्न उठानेके बावजूद अन्नानने प्रयत्नपूर्वक अपने कार्यमे लगकर इन प्रश्नोंका रोख परिषदके उद्दिष्टोके तरफ लाकर बोले, " शांतीदूत और शांतता प्रस्थापित करनेवाली धर्मकी उचित भुमिका फिरसे स्थापित करनेकेलिये-- बायबल या तोराह या कुरान इसपे झगडेका प्रश्न कभी नही था. सचमुच श्रद्धाका प्रश्न कभी नही था-- विश्वास और हम एक दुसरेसे कैसा आचरण करते है यह था. विश्वास दर्शक शांती और सौमनस्येका मार्ग फिरसे सिखाइये."

संयुक्त राष्ट्रसंघके नेताओंने आशा जताइ, अगर विश्वके ८३% लोक उपरी उपरी धार्मिक या आध्यात्मिक विश्वासको लेकर रहते है तो धार्मिक नेताओंने अपनी प्रभावसे अनुयायोंको शांतीके तरफ प्रभावित करना चाहिये.

संयुक्त राष्ट्रसंघको आशा है की इस परिषदकी वजहसे समाज योग्य दिशामे आयेगा, शब्दोंकी एकही दस्तावेजमे कहे, "अध्यात्मिक प्रभावका स्विकार करे और मानवी क्रूरताका निर्मूलन अपनेमे है यह पहचाने--युद्ध--और युद्धके अनेक कारणोमेसे एक गरीबी. विश्वके धार्मिक नेताओंने संयुक्त राष्ट्रसंघके साथ मिलकर मानवजातीके जरूरतेको संबोधित करनेका समय आया है."

सहभागी नेताओंने वैश्विक शांतताकेलिये घोषणापत्रपर मुहर उठानेके बाद और धार्मिक तथा आध्यात्मिक नेता आंतरराष्ट्रीय सलाह परिषद गठन करेगी; यह परिषद सयुक्त राष्ट्रसंघ तथा संघके महासचिवके साथ शांतता प्रस्थापित और रखनेमे मदत करेगी. इसके बाद शिखर परिषद बृहस्पतिवार ३१ ऑगस्टको समाप्त होगी.

जागतिक शांतता शिखरके महासचिव श्री. बावा जैन ने कहा, "धार्मिक और अध्यात्मिक नेताओंकी आंतरराष्ट्रीय सलाह परिषदका उद्देश संयुक्त राष्ट्रसंघके कार्यको मजबूत करना और बढाना है. विवादोंके समय विश्वके महान आध्यात्मिक और धार्मिक नेता ऐसे ज्वलंत विषयपर मार्ग निकालनेके लिये एकत्र हो जायेंगे ऐसी हमे आशा है. "


संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवचन

विश्व शांति के लिए आंतरिक शांति आवश्यक

तारिखः ऑगस्ट २९, २०००

२९ अगस्त, २००० को संयुक्त राष्ट्र संघ के जनरल एसेंब्ली हॉल में सहस्राब्दि विश्व शांति संमेलन के प्रतिनिधियों के सामने आचार्य गोयन्काजी द्वारा दिये गये प्रवचन का हिंदी अनुवाद

मित्रो, आध्यात्मिक एवं धार्मिक जगत के नेताओ!

आज हम सबको एकत्र होकर मानवता की सेवा करने का एक उत्तम अवसर उपलब्ध हुआ है। धर्म एकता लाए तो ही धर्म है। यदि फूट डालता है, तो वह धर्म नहीं है।

आज यहा कन्वर्जन के पक्ष में एवं विपक्ष में बहुत चर्चा हुई। मैं कन्वर्जन के पक्ष में हूं, विरोध में नहीं। लेकिन एक संप्रदाय से दूसरे संप्रदाय में नहीं, बल्कि कन्वर्जन दुःख से सुख में, बंधन से मुक्ति में, क्रूरता से करुणा में होना चाहिए। आज ऐसे ही परिवर्तन की आवश्यकता है और इसी के लिए इस महासभा में प्रयास करना है।

पुरातन भारत ने विश्व की समग्र मानवता को शांति एवं सामंजस्य का संदेश दिया। पर केवल इतना ही नहीं। शांति एवं सामंजस्य प्राप्त करने का तरिका भी दिया, विधि भी दी। मुझे ऐसा लगता है कि मानव समाज में यदि सचमुच शांति स्थापित करनी है, तो हमें हर एक व्यक्ति को महत्व देना होगा। अगर प्रत्येक व्यक्ति के मन में शांति नहीं है तो विश्व में वास्तविक शांति कैसे होगी? यदि मेरा मन व्याकुल है, हमेशा क्रोध, वैर, दुर्भावना एवं द्वेष से भरा रहता है, तो मैं विश्व को शांति कैसे प्रदान कर सकता हूं? ऐसा कर ही नहीं सकता क्यों कि स्वयं मुझमें शांति नहीं है। इसलिए संतों एवं प्रबुद्धों ने कहा है, “शांति अपने भीतर खोजो।” स्वयं अपने भीतर निरिक्षण करके देखना है कि क्या सचमुच मुझमें शांति है। विश्व के सभी संतो, सत्पुरुषों एवं मुनियों ने यहीं सलाह दी — अपने आप को जानो। माने केवल बुद्धि के स्तर पर नहीं, भावावेश में आकर या श्रद्धा के मारे स्वीकार मत कर लेना, बल्कि जब अपनी अनुभूति के स्तर पर अपने बारे में सच्चाई को जानेंगे तब जीवन की समस्याओं का स्वतः समाधान होता चला जायगा।

ऐसा होने पर व्यक्ति सर्वव्यापी निसर्ग के नियम को, कुदरत के कानून को या यूं कहे ईश्वर की इच्छा को समझने लगता है। यह कानून सब पर लागू होता है। यदि मैं अपने भीतर निरिक्षण करूं तो देखूंगा कि जैसे ही मन में कोई मैल जागता है, शरीर में उसका प्रतिक्रिया अनुभूत होने लगती है। शरीर गरम हो जाता है, जलने लगता है, धड़कन बढ़ जाती है, तनाव मालूम होता है। मैं व्याकूल हो जाता हूं। भीतर मैल जगाकर तनाव पैदा करता हूं तो अपनी व्याकुलता केवल अपने तक ही सीमित नहीं रखता। उसे औरों को भी बांटता हूं। अपने आस-पास के वातावरण को इतना तनावपूर्ण बना देता हूं कि जो मेरे संपर्क में आता है वही व्याकुल हो जाता है। मैं चाहे कितनी ही सुख-शांति की बाते करूं, मेरे भीतर क्या हो रहा है, यह शब्दों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। और यदि मेरा मन निर्मल है तो कुदरत का दूसरा कानून काम करने लगता है। जैसे ही मेरा मन निर्मल हुआ, यह कुदरत या ईश्वर मुझे पुरस्कार या देने लगता है। मुझे शांति का अनुभव होता है। इसे मैं अपने भीतर स्वयं देख सकता हूं।

कोई चाहे, किसी भी संप्रदाय का, परंपरा का, देश का हो जब वह कुदरत के कानून को तोड़ कर मन में मैल जगाता है तो दुःखी होता ही है। कुदरत स्वयं दंड देती है। कुदरत के कानून को तोड़ने वाला तात्काल नारकिय यातना का अनुभव करता है। इस समय नारकीय दुःख का बीज बो रहे हैं, तो मृत्यु के पश्चात भी नारकिय दुःख ही मिलेगा। वैसे ही, अगर मैं मन को शुद्ध रखूं, मैत्री एवं करुणा से भरूं तो अब भी अपने भीतर स्वर्गीय सुख भोगता हूं और यह बीज मरने के बाद भी स्वर्गीय सुख ही लायेगा। मैं अपने आपको चाहे हिंदू कहूं, इसाई, मुस्लिम, बौद्ध, जैन कुछ भी कहूं कोई फर्क नहीं पड़ता। मनुष्य मनुष्य है, मनुष्य का मानस मनुष्य का मानस है।

अतः कन्वर्जन होना ही चाहिए — मन की अशुद्धता का, मन की शुद्धता में। यह कन्वर्जन लोगों में आश्चर्यकारक बदलाव लायेगा। यह कोई जादू या चमत्कार नहीं, बल्कि अपने भीतर शरीर एवं चित्त के पारस्पारिक संस्पर्श को ठीक से जानने का परिणाम है, जो एक विशुद्ध विज्ञान है। कोई भी अभ्यास करने पर समझ सकता है कि मन किस प्रकार शरीर को प्रभावित करता है और शरीर किस प्रकार मन को प्रभावित करता है। बड़े धीरज के साथ जब इसका निरिक्षण करते जाते हैं तो कुदरत का कानून बड़ा स्पष्ट होता जाता है कि जब भी हम चित्त में मैल जगाते हैं, दुःखी होते है और जैसे ही चित्त मैल से विमुक्त हो जाता है, शांति-सुख का अनुभव करने लगते हैं। आत्म निरीक्षण की इस विधि का अभ्यास कोई भी कर सकता है।

प्राचीन काल में भगवान बुद्ध द्वारा सिखाई गई यह विद्या विश्वभर में फैली। आज भी विभिन्न वर्गों के, संप्रदायों के लोग आकर इस विद्या को सीखते हैं और वही लाभ प्राप्त करते हैं। वे अपने आपको हिंदू, मुसलमान, बौद्ध, इसाई कहते रहें, इन नामों से कोई फर्क नहीं पड़ता। मनुष्य मनुष्य है, फर्क इसी बात से होगा कि वे अभ्यास द्वारा वास्तव में धार्मिक बनें, मैत्री एवं करुणा से परिपूर्ण हो जायँ। उनके कर्म स्वयं अपने लिए एवं औरों के लिए अच्छे हो जायँ। जब कोई व्यक्ति अपने भीतर शांति जगाता है, तो उसके आसपास का सारा वातावरण शांति की तरंगों से भर उठता है। उसके संपर्क में जो भी आता है वही शांति अनुभव करता है। यह मानसिक परिवर्तन ही सही परिवर्तन है, सही कन्वर्जन है। आवश्यकता इसी बात की है। अन्यथा सभी बाह्य परिवर्तन निरर्थक हैं।

वैश्विक शांतीके लिए मनःशांती

“हमें केवल अपने धर्म (संप्रदाय) को सम्मान देकर दूसरे संप्रदायों की निंदा नहीं करनी चाहिए।” आज इस संदेश का बहुत बड़ा महत्त्व है। दूसरे संप्रदाय की निंदा करके अपने संप्रदाय की सर्वोत्तमता सिद्ध करते हुए व्यक्ति मानवता के लिए बहुत बड़ी कठिनाई पैदा करता है। फिर अशोक कहता है, “इसके बजाय नाना कारणों से दूसरे संप्रदायों का सम्मान करना चाहिए।” हर संप्रदाय का सार मैत्री, करुणा एवं सद्भावना है। इस सार को समझते हुए हमें हर धर्म का सम्मान करना चाहिए। छिलके हमेशा भिन्न होते हैं—तरह तरह के रीति-रिवाज, कर्मकांड, अनुष्ठान, धारणाएं होंगी। उन सबको लेकर झगड़ने के बजाय उनके भीतर के सार को महत्त्व देना चाहिए। अशोक के अनुसार, “ऐसा करके हम अपने ही धर्म (संप्रदाय) को बढ़ावा देते हैं और दूसरे धर्मों की भी सेवा करते हैं। इसके विपरीत व्यवहार करके हम अपने संप्रदाय की भी हानि करते हैं और दूसर संप्रदाय को भी हानि पहुँचाते हैं।”

यह संदेश हम सबको गंभीर चेतावनी देता है कि जो कोई व्यक्ति अपने संप्रदाय के प्रति अति श्रद्धा के मारे दूसरे संप्रदाय की निंदा करते हुए यह सोचता है कि ऐसा करके मैं अपने संप्रदाय की शान बढ़ाऊंगा, वह अपने कृत्यों से अपने ही संप्रदाय की हानि करता है।

अंत में अशोक सर्वव्यापी धर्मनियामता का संदेश प्रस्तुत करता है। “आपस में मिलकर रहना अच्छा है। झगड़ा नहीं करना चाहिए। दूसरों संप्रदायों के जो उपदेश है उसे सभी सुनें एवं सुनने के लिए उत्सुक भी हों।”

अस्वीकार करने एवं निंदा करने के बजाय, हम हर संप्रदाय के सार को महत्त्व दें तभी समाज वास्तविक शांति एवं सौमनस्य स्थापित होगा।

सब का मंगल हो।

अहिंसाः धर्मकी परिभाषाकी चाभी

दो संप्रदायोंमे फर्क होना स्वाभाविक है. फिर भी, इस विश्वशांती शिखरमे जमा होनेसे मुख्य विचारधाराके नेताओने शांतीकेलिये काम करनेकी इच्छा जताई है. पहले शांती बादमे, पहला तत्व वैश्विक धर्मका. चले हम साथमे घोषित करे की हम हत्यासे विरत रहेंगे, हिंसाकी निंदा करेंगे. युद्ध या शांतीमे मुख्य भूमिका निभानेवाले राजकिय प्रमुख व्यक्तिभी इसमे सामिल हो. वे इनमे शामिल हो या न हो कमसे कम यहा और अभी स्विकार करे कीः हिंसा और हत्येको क्षमा करनेके बदले, जब धर्मके नामपर हिंसा होती है तब हम ऐसे कर्मकी निंदा करते है ऐसा घोषित करे.

कुछ आध्यात्मिक नेताओंमे अपने धार्मिकश्रध्दाओंके नामपर होनेवाली हिंसापर निंदा करनेकी दुरदर्शिता और साहस होता ही है. की गयी हिंसा और हत्याके लिये क्षमा और खेद व्यक्त करनेका धर्मशास्त्र और तत्वज्ञान अवलोकनका तरिका अलग हो सकता है, फिर भी पहले किये हुए हिंसाकी स्विकृती संकेत देती है की वह कृत्य गलत था और भविष्यमे इसको क्षमा नही होगी.

संयुक्त राष्ट्रसंघके छत के नीचे हम धर्म और अध्यात्मकी ओर अहिंसाको अधोरेखीत करनेवाली परिभाषा तयार करनेका प्रयत्न करे, और हत्या करनेको उत्तेजन नही दे. किसी भी धर्मकी परिभाषामे शांती को न होना मानवसमाजके लिये बडा दुर्भाग्यपूर्ण है. यह शिखर परिषद "वैश्विक धर्म" या "संप्रदायरहित अध्यात्म" इस संकल्पनाको दृढ करनेकेलिये संयुक्त राष्ट्रसंघके आगे रखे.

धर्मके वास्तविक उद्देशपर विश्वका ध्यान केंद्रित करनेकेलिये यह शिखर परिषद मदद करेगी इसकी हमे निश्चिंती है.

धर्म हमारेमे एकता लाती है
अलग नही बनाती; वह हमे शांती और सहृदयता सिखाती है.

इस शिखर परिषदका आयोजन करनेवालोंको हम उनकी दूरदृष्टी और प्रयत्नके लिये अभिनंदन करते है. हम धार्मिक और आध्यात्मिक नेताओंको धन्यवाद देते है, जिनकी परिपक्वता मिलजुलके काम करना और धर्म और अध्यात्मिकता मानवसमाजको शांततापूर्ण भविष्यके तरफ ले जानेकी आशा दिखाते है.

सभी लोग द्वेषसे मुक्त हो और सुखी हो.

शांती और एकता प्रबल हो.

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